Sunday, October 9, 2011

Abhayanand : Patna University Physics Record Holder..


राजनीतिक दबाव कुछ नहीं होता-अभयानंद, DGP (बिहार) 


(बिहार के डीजीपी अभयानंद जी से तहलका के संवाददाता निराला की बातचीत.)

डीजीपी बनने के बाद अब आपकी जिम्मेवारियां बढ़ गयी हैं. आप फिजिक्स के पठन-पाठन और रहमानी-30 जैसी संस्थाओं को कितना समय दे पायेंगे?
 समयाभाव तो कुछ होगा लेकिन एकदम से यह सब रूक जायेगा, यह असंभव है. पढ़ना-पढ़ाना मेरा पैशन है, इसे मैं नहीं रोक सकता. रही बात समय की तो कोई कितना भी व्यस्त हो, कुछ टाईम तो पर्सनल लाईफ के लिए निकाल ही सकता है. उसी समय को मैनेज कर इन संस्थानों में जाउंगा.

आप जिस समय में राज्य के पुलिस महकमे के मुखिया बने हैं,वह कानून-व्यवस्था की दृष्टि से क्या वाकई काफी अनुकूल दौर है?
 स्थितियों के अनुकूल-प्रतिकूल की बजाय मैं यह मानता हूं कि पुलिसवालों के सामने हर रोज एक नयी चुनौती सामने होती है.

फिलहाल पुलिस के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
 तीन साल से मैं मेनस्ट्रीम से दूर था, इसलिए अभी कुछ नहीं कह सकता लेकिन मुझे लगता है कि सबसे बड़ी चुनौती विभागीय संवादहीनता की है. आपस में ही संवादहीनता काफी है, इसलिए पब्लिक से भी संवादहीनता बढ़-सी गयी है. और इसके बाद सबसे बड़ी चुनौती साख और विश्वसनीयता की है. अब तक तो मैं पुलिस महकमे को अलग-अलग इकाइयों के रूप में देखते रहा हूं. अब समग्रता में देखूंगा तो मेरी पहली कोशिश होगी कि साख और विश्वसनीयता बहाल हो. पुलिस के कहे पर लोग भरोसा करें.

 बिहार में पुलिस-पब्लिक टकराव की घटनाएं तेजी से सामने आयी हैं. लोग बात-बेबात कानून हाथ में ले रहे हैं, पुलिसवाले भी आपा खो रहे हैं. इसकी क्या वजह मानते हैं और इससे पार पाने के क्या उपाय करेंगे?
 हां मैंने भी मीडिया के माध्यम से कुछ घटनाओं के बारे में जाना है लेकिन अब असलियत क्या है, कारण क्या रहे हैं, इसे समझने की कोशिश करूंगा.मीडिया के खबरों से तो सबकुछ सच-सच नहीं जाना सकता न! न ही मीडिया की खबरों के आधार पर रणनीति तय की जा सकती है. वैसे मैंने पहले ही कहा कि पुलिसवालों के बीच आपसी संवादहीनता ही ज्यादा हो गयी है. उनके बीच आपसी विभागीय संवाद कायम हो, तब तो वे पब्लिक से संवाद कायम कर सकेंगे.

बिहार के नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या में कुछ और नाम भी जुड़ गये हैं. नक्सली समस्या को कैसे देखते-आंकते हैं? किस तरह निपटना चाहेंगे?
 मैं मानता हूं कि नक्सली समस्या की मूल वजह को अब तक जाना-पहचाना नहीं जा सका है. क्षेत्र और राज्य विशेष के अनुसार इस समस्या का अब तक आकलन किया जाता रहा है और उसी के अनुसार पार पाने के लिए प्रयोग किये जाते रहे हैं. कोई भी प्रयोग अब तक पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है लेकिन प्रयोग करना बंद भी तो नहीं किया जा सकता. मैं भी कुछ प्रयोग करना चाहूंगा, वह किस तरह का होगा, यह नहीं बता सकता. वैसे मैं नक्सलप्रभावित क्षेत्रों के अर्थशास्त्र को सबसे पहले समझने की कोशिश करूंगा.

 आप कह रहे हैं कि कारण का ही पता नहीं चल सका है और प्रयोग भी असफल होते रहे हैं, तो क्या पिछले 44 सालों से नक्सलियों के खिलाफ तुक्काबाजी का अभियान चलाया जाता रहा है?
 नहीं, ऐसा नहीं. कारण स्पष्ट नहीं है, यह कह रहा हूं लेकिन उसके बारे में एकदम से कोई जानकारी नहीं है, ऐसा भी नहीं है इसलिए तुक्काबाजी पर चलाया गया अभियान नहीं कह सकते.

 पुलिस और पब्लिक के बीच जो दूरियां बढ़ी हैं, भरोसा खत्म हुआ है, उसे पाटने में कम्युनिटी अथवा सोशल पुलिसिंग जैसे अभियान की कितनी भूमिका देखते हैं आप?
पहले तो कोई भी पुलिसमैन एक मैन होता है. अब किसी आदमी की आदमीयता या मानवीयता किसी अभियान से तो जगायी नहीं जा सकती. अभियान तो एक ड्युटी की तरह हो जाता है. जब तक पुलिसवाले खुद से ही इसे अपने फर्ज की तरह नहीं लेंगे, बहुत कुछ बदलाव होगा, ऐसा नहीं लगता.

 आपके पिताजी भी बिहार के डीजीपी थे. अब आप भी डीजीपी हैं. आपका पूरा पैशन फिजिक्स के अध्ययन-अध्यापन में है.एकेडेमिक क्षेत्र में ही क्यों नहीं कैरियर बनाये?
 मैं पुलिस की सेवा में गलती से आ गया. इस सर्विस में आने के लिए जो मिनिमम योग्यताचाहिए, वही है मेरे पास. मैं पटना साइंस कॉलेज से साइंस ग्रेजुएट हूं. अपने बैच में टॉपर था. अपने सबजेक्ट का यूनिवर्सिटी टाॅपर था. शायद अब तक पटना विश्वविद्यालय में फिजिक्स में मुझे प्राप्त अंक रिकार्ड ही है. मैं चाहता तो था एकेडेमिक क्षेत्र में ही जाना लेकिन पटना में पढ़ने के दौरान ही देख लिया था कि यहां से और आगे जाने की ज्यादा संभावना नहीं इसलिए मैंने यूपीएससी की परीक्षा दी और फिर आईपीएस बन गया.

 फिजिक्स और पुलिस के अलावा और कोई रुचि? साहित्य, सिनेमा, संगीत वगैरह में..!
  ना, कोई खास रुचि नहीं है. साहित्य नहीं पढ़ता. सिनेमा जब एसपी था तो किसी-किसी हाॅल में बीच में ही जाकर बैठकर 10-15 मिनट देख लिया करता था. मुझे पढ़ने के तौर पर वही पसंद है,जिसे विज्ञान की कसौटी पर कसा जा सके. दर्शनशास्त्र पसंद है लेकिन खालिस नहीं, वैज्ञानिक चेतना वाला. इन दिनों ब्लैकमनी के शोर के बाद अर्थशास्त्र को भी समझने की कोशिश कर रहा हूं.

 राजनीतिक दबाव को कैसे झेलते हैं अथवा झेलेंगे...?
 दबाव कुछ होता नहीं, आप जानबुझकर उसे महसूस करते हैं. राजनीति इस पूरी व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है, हर अंग को एक दूसरे से इंटरैक्ट होना पड़ता है, दबाव जैसा मैं कुछ नहीं मानता.

(साभार-तहलका)

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